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अकीदतमंदों ने पेश की चादर, हुआ लंगर और कलाम, इंसानियत और भाईचारे का संदेश*

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कायमगंज/फर्रुखाबाद से ललित राजपूत की रिपोर्ट

ऐतिहासिक दरगाह हज़रत सय्यद जूही शाह औलिया (Dargah Hazrat Syed Juhi Shah Aulia) अलैहि रहमा का सालाना उर्स ज़िलहज (Annual Urs Zilhaj) महीने की 20वीं तारीख को बड़ी शान-ओ-शौकत से मनाया गया। इस मौके पर जिले सहित दूर-दराज़ से आए अकीदतमंदों ने फूल और चादर पेश कर अपनी अकीदत का इज़हार किया। उर्स का यह आयोजन गंगा-जमुनी तहज़ीब की शानदार मिसाल बनकर सामने आया, जिसमें सभी धर्मों के लोगों ने शिरकत की।
दरगाह परिसर में लंगर तकसीम किया गया, जिसमें हजारों लोगों ने बैठकर एक साथ भोजन किया। यह आयोजन न सिर्फ एक धार्मिक समागम रहा, बल्कि इंसानियत, भाईचारे और मोहब्बत का पैग़ाम भी देता रहा। इस मौके पर दरगाह के सज्जादा नशीन शाह मुहम्मद मुशीर मियां ने हज़रत मखदूम शाह सय्यद शहाबुद्दीन औलिया (लोको फतेहगढ़) के नायब सज्जादा नशीन शाह मुहम्मद वसीम उर्फ मुहम्मद मियां साहब को दस्तारबंदी कर सम्मानित किया और उन्हें तोहफा भी पेश किया।
पप्पन मियां ने अपने दिल को छू लेने वाले खिताब में कहा कि “खानकाहें हमेशा से इंसानियत, मोहब्बत और भाईचारे की मीनार रही हैं। सूफी संतों ने मजहबी दीवारों को तोड़ कर समाज में अमन और इंसानियत को बढ़ावा दिया है। आज जब समाज बंट रहा है, तब औलिया-ए-किराम की तालीम को अपनाने की ज़रूरत सबसे ज़्यादा है।”
उन्होंने कहा कि हर दौर में सूफी संतों ने समाज से बुराइयों को मिटाकर मोहब्बत की शमा जलाई है। इनके आस्तानों से लोगों को रूहानी सकून के साथ जीवन जीने की राह भी मिलती है। कार्यक्रम में बच्चा क़व्वाल पार्टी ने भी अपने सूफियाना कलामों से महफिल को रौशन किया। “तू बड़ा गरीब नवाज़ है…” और “इश्क में तेरे कोहे ग़म सर पे लिया जो हो सो हो…” जैसे कलामों ने समा बांध दिया।
यह उर्स सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सामाजिक सौहार्द, सांस्कृतिक एकता और सूफी परंपरा की विरासत को ज़िंदा रखने की कोशिश भी है। दरगाह हज़रत जूही शाह औलिया आज भी उस रूहानी रोशनी का स्रोत है, जो दिलों को जोड़ने का काम कर रही है।

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